तुलसी-शालिग्राम विवाह शुभ मुहूर्त और कथा जाने

देवउठनी एकादशी पर सिद्धि, महालक्ष्मी और रवियोग जैसे शुभ योग का निर्माण हो रहा है।
कार्तिक महीने की शुक्ल पक्ष की एकादशी को देवप्रबोधिनी, देवउठनी और देवोत्थान एकादशी के नाम से जाना जाता है।
आज देवोत्थान एकादशी है और आज ही तुलसी विवाह भी है। हिंदू धर्म में एकादशी का विशेष महत्व होता है।  करीब पांच महीनों के विराम के बाद एक बार फिर से सभी तरह के धार्मिक, शुभ कार्य और विवाह कार्यक्रम आरंभ होने जा रहे हैं।  हिंदू पंचांग के अनुसार कार्तिक महीने की शुक्ल पक्ष की एकादशी को देवप्रबोधिनी, देवउठनी और देवोत्थान एकादशी के नाम से जाना जाता है। मान्यता है कि कार्तिक माह की देवउठनी एकादशी पर भगवान विष्णु क्षीरसागर में चार महीने तक विश्राम करने के बाद इस तिथि पर उठते हैं और सृष्टि का संचालन अपने कंधों पर एक फिर से संभाल लेते हैं। भगवान विष्णु आषाढ महीने की शुक्लपक्ष की देवशयनी एकादशी पर क्षीर सागर में सोने के लिए चले जाते हैं। देवउठनी एकादशी पर भगवान विष्णु और तुलसी का विवाह किया जाता है। देवउठनी एकादशी पर देवी तुलसी और भगवान शालिग्राम विवाह की परंपरा
देवउठनी एकादशी पर तुलसी विवाह का आयोजन किया जाता है। विधिवत रूप से एकादशी की शाम को तुलसी विवाह का कार्यक्रम संपन्न किया जाता है। इसमें सामान्य विवाह अनुष्ठानों की तरह सभी तरह के हिंदू रीति-रिवाजों का पालन करते हुए विवाह संपन्न होता है। शास्त्रों में बताया गया है जिन लोगों की कन्याएं नहीं होती वे तुलसी विवाह कर कन्यादान का पावन पुण्य प्राप्त करते हैं।

देवउठनी एकादशी शुभ संयोग 2020
इस वर्ष देवउठनी एकादशी पर सिद्धि, महालक्ष्मी और रवियोग जैसे शुभ योग का निर्माण हो रहा है। ऐसे में ज्योतिषाचार्यो के अनुसार इन शुभ योगों से देव प्रबोधिनी एकादशी पर भगवान विष्णु, माता लक्ष्मी और देवी तुलसी की पूजा का अक्षय फल मिलेगा। कई सालों बाद एकादशी पर ऐसा संयोग बना है।

देवउठनी एकादशी का शुभ मुहूर्त
देवोत्थान एकादशी व्रत 25 नवंबर, बुधवार को है। हिंदू पंचांग के अनुसार 25 नवंबर को एकादशी तिथि दोपहर 2 बजकर 42 मिनट से लग जाएगी। वहीं एकादशी तिथि का समापन 26 नवंबर को शाम 5 बजकर 10 मिनट पर समाप्त हो जाएगी।

तुलसी-शालिग्राम विवाह शुभ मुहूर्त
गोधूलि वेला- शाम 5 बजकर 15 मिनट से लेकर 5 बजकर 40 मिनट तक
अमृत काल- शाम 6 बजकर  40 मिनट से लेकर 8 बजकर  25 मिनट तक

पौराणिक कथा-  देवशयनी से देवउठनी एकादशी तक
भगवान विष्णु के चार महीनों के लिए निद्रा में जाने के पीछे एक कथा है। जिसके अनुसार एक बार भगवान विष्णु से उनकी प्रिया लक्ष्मी जी ने आग्रह भाव में कहा-हे प्रभु! आप दिन-रात जागते हैं लेकिन, जब आप सोते हैं तो फिर कई वर्षों के लिए सो जाते हैं। ऐसे में समस्त प्रकृति का संतुलन बिगड़ जाता है। इसलिए आप नियम से ही विश्राम किया कीजिए। आपके ऐसा करने से मुझे भी कुछ समय आराम मिलेगा। लक्ष्मी जी की बात सुनकर नारायण मुस्कुराए और बोले-‘देवी’! तुमने उचित कहा है। मेरे जागने से सभी देवों और खासकर तुम्हें मेरी सेवा में रहने के कारण विश्राम नहीं मिलता है। इसलिए आज से मैं हर वर्ष चार मास वर्षा ऋतु में शयन किया करूँगा। मेरी यह निद्रा अल्पनिद्रा और योगनिद्रा कहलाएगी जो मेरे भक्तों के लिए परम मंगलकारी रहेगी। इस दौरान जो भी भक्त मेरे शयन की भावना कर मेरी सेवा करेंगे,मैं उनके घर तुम्हारे सहित सदैव निवास करूंगा।

पौराणिक कथा-  देवउठनी एकादशी पर तुलसी विवाह
पौराणिक मान्यता के अनुसार, राक्षस कुल में एक कन्या का जन्म हुआ जिसका नाम वृंदा रखा गया। वह बचपन से भगवान विष्णु की परम भक्त थीं और हमेशा उनकी भक्ति में लीन रहती थीं। जब वृंदा विवाह योग्य हुई तो उसके माता-पिता ने उसका विवाह समुद्र मंथन से उत्पन्न हुए जलंधर नाम के राक्षस से कर दिया। वृंदा भगवान विष्णु की भक्त के साथ एक पतिव्रता स्त्री थीं, जिसके कारण उनके पति जलंधर और भी शक्तिशाली हो गया।जलंधर जब भी युद्ध पर जाता वृंदा पूजा अनुष्ठान करती, वृंदा की भक्ति के कारण जलंधर को कोई भी नहीं मार पा रहा था। जलंधर ने देवताओं पर चढ़ाई कर दी, सारे देवता जलंधर को मारने में असमर्थ हो रहे थे, जलंधर उन्हें बूरी तरह से हरा रहा था। दुःखी होकर सभी देवता भगवान विष्णु की शरण में गये और जलंधर के आतंक को समाप्त करने की प्रार्थना करने लगे।
तब भगवान विष्णु ने अपनी माया से जलांधर का रूप धारण कर लिया और छल से वृंदा के पतिव्रत धर्म को नष्ट कर दिया। इससे जलंधर की शक्ति क्षीण हो गयी और वह युद्ध में मारा गया। जब वृंदा को भगवान विष्णु के छल का पता चला तो उसने भगवान विष्णु को पत्थर का बन जाने का शाप दे दिया।  भगवान को पत्थर का होते देख सभी देवी-देवता में हाकाकार मच गया, फिर माता लक्ष्मी ने वृंदा से प्रार्थना की तब वृंदा ने जगत कल्याण के लिये अपना शाप वापस ले लिया और खुद जलंधर के साथ सती हो गई फिर उनकी राख से एक पौधा निकला जिसे भगवान विष्णु ने तुलसी नाम दिया और खुद के एक रुप को पत्थर में समाहित करते हुए कहा कि आज से तुलसी के बिना मैं प्रसाद स्वीकार नहीं करुंगा। इस पत्थर को शालिग्राम के नाम से तुलसी जी के साथ ही पूजा जायेगा। कार्तिक महीने में तो तुलसी जी का शालिग्राम के साथ विवाह भी किया जाता है।

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