घाव में आज लगाओ..कल निशान नहीं मिलेगा! अतिदुर्लभ औषधि का महाभारत युद्ध में हुआ था इस्तेमाल….

रीवा: महाभारत के समय एक अनोखी जड़ीबूटी का इस्तेमाल किया जाता था, जिससे युद्ध में घायल सैनिकों का घाव तेजी से भर जाता था| यही नहीं, उस जड़ीबूटी की पत्तियों और पौधे के छाल के रस में कपड़े को डुबोकर गंभीर घाव पर बांधने से वह भी ठीक हो जाता था| लेकिन, आज के समय में वह जड़ीबूटी अतिदुर्लभ है| इसका नाम शल्यकर्णी है, जिसका पौधा रीवा में संरक्षित है| आयुर्वेद में इस जड़ी-बूटी की महिमा सुन आप भी हैरान रह जाएंगे|

नर्सरी हो रही तैयार
रीवा के वन संरक्षक सामाजिक वानिकी वृत्त अनुसंधान केंद्र में अतिदुर्भल प्राचीन काल की गुणकारी और चमत्कारी औषधि शल्यकर्णी के पौधे को संरक्षित करने का दावा किया गया है| विशेषज्ञ का कहना है कि प्रयास किया जा रहा है कि इस पौधे की संख्या बढ़ाई जा सके| इस पौधे को कई वर्ष पहले अमरकंटक के जंगलों से लाया गया था| इसके बाद रीवा के वानिकी विभाग में इसका पौधरोपण किया गया| यहां के औषधीय वाटिका में इसकी नर्सरी लगाई गई, जबकि यहां पर रोपे गए शल्यकर्णी के कुछ पौधे 5 फीट से 10 फीट तक के हो चुके हैं|

60 फीट का होता है पेड़
डॉ. दीपक ने आगे बताया, ‘शल्यकर्णी एक लुप्त प्राय पौधा है| यह पौधा अब विलुप्त होने की श्रेणी में है| इस पौधे का वर्णन महाभारत काल में भी है| इस पौधे का मात्र लेप लगाने से ही युद्ध में घायल सैनिकों के घाव ठीक हो जाते थे| साथ ही आयुर्वेद के ग्रंथ चरक संहिता में भी इसका वर्णन है| इस खास औषधि का पौधा करीब 50 से लेकर 60 फीट तक का होता है| महाभारत के युद्ध में सैनिक जब तलवार भाले और तीर से घायल होते थे, तब इस औषधि के पत्तों से उनका उपचार किया जाता था|’

डॉ. दीपक ने बताया, रामायण काल की बात करें तो उसमें तीन महा शक्तिशाली जड़ी बूटियों का वर्णन आता है| जिसमें मृत संजीवनी, विशल्यकर्णी और शल्यकर्णी है| इस प्रकार से संजीवनी जड़ी-बूटी के सेवन से मरणासन्न हालत में पड़ा व्यक्ति जीवित हो जाता था| उसी तरह से प्राचीन काल के दौरान विशल्यकर्णी का पौधा भी विभिन्न प्रकार की बीमारियों में उपचार के लिए उपयोग में लाया जाता था| शल्यकर्णी तब भी घावों को ठीक करने में काम आता था|

ऐसे दोबारा अस्तित्व में आई शल्यकर्णी
बताया जाता है की सीधी और अमरकंटक के पहाड़ी क्षेत्र के आलावा रीवा के छुहिया पहाड़ में इसकी खोज आदिवासियों ने की थी| किवदंती है कि कई साल पहले आदिवासियों ने एक झरने के समीप एक बड़ी सी मछली को तीर मारकर उसका शिकार किया था, जिसके बाद आदिवासियों ने मछली को घर तक ले जाने के लिए पास ही लगे शल्यकर्णी के पत्तों का इस्तेमाल किया था| उन्होंने शिकार की गई मछली को शल्यकर्णी के पत्ते से लपेटा और उसे घर लेकर गए| दूसरे दिन सुबह जब मछली के ऊपर लपेटे गए पत्ते को हटाए गए तो मछली पर लगे तीर के घाव गायब थे| अब इसी बात से अंदाजा लगाया जा सकता है कि यह पौधा कितना चमत्कारी, लाभकारी और गुणकारी है|

आदिवासियों ने की थी शल्यकर्णी की खोज
जानकारी के मुताबिक, 2008 में एक आदिवासी सम्मेलन हुआ| उसी दौरान आदिवासियों ने इस दुर्लभ शल्यकर्णी पौधे की जानकारी दी थी| तभी यह पौधा दोबारा अस्तित्व में आया, लेकिन अब यह पौधा विलुप्त होने की कगार पर है| यह पौधा हिमालय पर्वत के आलावा पचमढ़ी, अमरकंटक और रीवा सीधी के मध्य छुहिया पहाड़ में पाए जाते थे| कहा जाता है कि यह खास पौधे अब काफी कम संख्या में छुहिया पहाड़ पर मौजूद हैं| बताया गया कि आज भी आदिवासी इस गुणकारी पौधे का इस्तेमाल करके बखूबी अपना इलाज कर लेते हैं|

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