प्रशांत भूषण को सुप्रीम कोर्ट की नसीहत, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और अवमानना में बारीक अंतर
सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को वकील प्रशांत भूषण के खिलाफ 2009 में दर्ज अवमानना केस में सुनवाई पूरी की। जस्टिस अरुण मिश्रा की अगुवाई में तीन जजों की बेंच ने वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए सुनवाई करते हुए वरिष्ठ वकीलों राजीव धवन, कपिल सिब्बल और हरिश साल्वे से एक-एक करके वॉट्सऐप वीडियो कॉल के जरिए दलीलें सुनीं।
प्रशांत भूषण की ओर से धवन पेश हुए थे तो सिब्बल ने तहलका के पूर्व एडिटर तरुण तेजपाल का पक्ष रखा। साल्वे की ओर से किए गए अवमानना केस में तेजपाल का भी नाम है। यह केस भूषण की ओर से तहलका को दिए गए इंटरव्यू को लेकर है जिसमें उन्होंने आरोप लगाया कि भारत के 16 मुख्य न्यायाधीशों में से आधे भ्रष्ट थे। हाल ही में कोर्ट अवमानना कानून की एक धारा को समाप्त करने के लिए अर्जी देने वाले प्रशांत भूषण को सुप्रीम कोर्ट ने बताया कि अभिव्यक्ति की आजादी और अवमानना के बीच बारीक अंतर है।
पिछली सुनवाई में सुप्रीम कोर्ट ने मामले में तैयारी के लिए वकीलों को कुछ और समय देते हुए 4 अगस्त को सुनवाई की तारीख तय की थी। तहलका को दिए इंटरव्यू में कुछ मौजूदा और पूर्व जजों के खिलाफ आक्षेप लगाए जाने को लेकर नवंबर 2009 में कोर्ट ने प्रशांत भूषण और तेजपाल को अवमानना का नोटिस दिया था। तेजपाल उस सयम तहलका के एडिटर थे।
22 जुलाई को इसी बेंच ने न्यायपालिका के कथित अपमान को लेकर किए गए प्रशांत भूषण की ओर से किए गए दो ट्वीट्स का स्वत: संज्ञान लिया था। बेंच ने कहा था कि प्रथम दृष्टया उनके बयानों से न्यायिक प्रशासन की बदनामी हुई। नोटिस के जवाब में भूषण ने कहा था कि ‘कुछ के लिए अपमानजनक या असहनीय’ राय की अभिव्यक्ति अदालत की अवमानना नहीं हो सकती है। वकील कामिनी जायसवाल की ओर से दाखिल 142 पेज के जवाब में भूषण ने कोर्ट के कई फैसलों, पूर्व जजों के भाषणों का उदाहरण दिया था।
प्रशांत भूषण ने दी है चुनौती
वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण, वरिष्ठ पत्रकार एन राम और पूर्व केंद्रीय मंत्री अरुण शौरी ने शुक्रवार को सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर करके कोर्ट की अवमानना कानून में सेक्शन 2(c)(i) की वैधता को चुनौती दी है। यह प्रावधान उस विषय-वस्तु के प्रकाशन को अपराध घोषित करता है, जो कोर्ट की निंदा करता है या कोर्ट के अधिकार को कम करता है।
याचिकाकर्ताओं का तर्क है कि यह प्रावधान संविधान के अनुच्छेद 19 के तहत मिले ‘बोलने की स्वतंत्रता’ के अधिकार का उल्लंघन करता है और जनता के महत्व के मुद्दों पर बहस को प्रभावी तरीके से रोकता है। याचिका में कहा गया है, ”यह अनुच्छेद 19 (1)(a) के तहत अभिव्यक्ति की आजादी गारंटी का उल्लंघन करता है। यह असंवैधानिक है क्योंकि यह संविधान की प्रस्तावना मूल्यों और बुनियादी विशेषताओं के साथ असंगत है।”