ब्लैक कार्बन कर रहा ग्लेशियरों की सेहत खराब

श्रीनगर। अत्यधिक मानवीय गतिविधियां, ब्लैक कार्बन और धूल के कण ग्लेशियरों को नुकसान पहुंचा रहे हैं। गढ़वाल विवि श्रीनगर और भारतीय उष्णदेशीय मौसम विज्ञान संस्थान (आईआईटीएम) पुणे के अध्ययन के मुताबिक 3800 मीटर से अधिक ऊंचाई वाले क्षेत्रों में भी ब्लैक कार्बन और धूल के कणों की संख्या बढ़ती जा रही है। वैज्ञानिकों के अनुसार, ब्लैक कार्बन की उच्च हिमालय क्षेत्र में मौजूदगी चिंताजनक है। साथ ही वैज्ञानिकों का मानना है कि योजनाओं के निर्माण में शोध को प्राथमिकता मिले, तो काफी हद तक आपदाओं मेें कमी आएगी।

गढ़वाल विवि के भूविज्ञान विभाग के प्रो. एचसी नैनवाल व भौतिकी विभाग के सहायक प्रो. डा. आलोक सागर गौतम व संजीव कुमार और आईआईटीएम पुणे के वैज्ञानिक डा. अभिलाष पानिक्कर व के संदीप की टीम वर्ष 2016 से बदरीनाथ माणा से करीब 15 किलोमीटर आगे संतोपंथ ग्लेशियर का अध्ययन कर रहे हैं। टीम हर साल यहां मई से अक्तूबर माह तक कुलानिल बेस कैंप में ब्लैक कार्बन मापने के लिए एथेलोमीटर स्थापित करती है।

अध्ययन में चौंकाने वाले तथ्य उजागर हुए हैं। संतोपंथ ग्लेशियर में ब्लैक कार्बन की मात्रा बढ़ती जा रही है। वर्ष 2011 में विक्रम साराभाई स्पेस सेंटर के डा. विजय नायर ने अपने शोध के दौरान यहां ब्लैक कार्बन की मात्रा 190 नैनोग्राम प्रति क्यूबिक मीटर बताई थी। जब गढ़वाल विवि और आईआईटीएम की संयुक्त टीम ने वर्ष 2016 में अध्ययन शुरू किया, तो ब्लैक कार्बन 199 नैनोग्राम प्रति क्यूबिक मीटर मिला। वर्ष 2019 में यह बढ़कर 208 नैनोग्राम तक पहुंच गया।

वैज्ञानिकों के अनुसार, संतोपंथ में लगातार ब्लैक कार्बन एरोसोल की मात्रा बढ़ती जा रही है। वहीं, वाडिया हिमालय भूविज्ञान ने भी गंगोत्री ग्लेशियर में अध्ययन किया है। यहां सामान्य तौर पर 10 से 90 नैनोग्राम प्रति क्यूबिक मीटर ब्लैक कार्बन पाया जाता है। लेकिन जब जंगलों में आग लगती है, तो यह 4 हजार 620 नैनोग्राम तक पहुंच जाता है।  जंगलों की आग और वाहनों व जनरेटरों के ईंधन जलने से ब्लैक कार्बन निकलता है। यह हवा में एक हफ्ते तक उड़ सकता है। वातावरण में उड़ते हुए इसमें धूल के कण भी मिल जाते हैं।

गर्म होने की वजह से यह हवा के साथ ठंडे इलाकों यानी कि ऊंचाई वाले क्षेत्रों में उड़कर पहुंच जाते हैं। बाद में यह ग्लेशियर में जमा होते हैं। ब्लैक कार्बन वातावरण से उष्मा का ज्यादा अवशोषण करते हैं, जिससे ग्लेशियरों की पिघलने की रफ्तार बढ़ जाती है। अत्यधिक मानवीय गतिविधि ग्लेशियरों की सेहत पर नकारात्मक प्रभाव डाल रही हैं। आवश्यकता है कि सभी ग्लेशियरों में वायु प्रदूषण के सभी आंकड़े जुटाने के बाद उन्हें साझा किया जाय। यदि योजनाओं के निर्माण में शोध को प्राथमिकता मिले, तो काफी हद तक आपदाओं मेें कमी आएगी।