90 साल का हुआ RBI,भारत को संकटों से बचाने के लिए लड़ीं कई लड़ाइयां
न्यूज़रूम| भारतीय रिज़र्व बैंक (RBI) इस सप्ताह 90 वर्ष का हो गया है। RBI की यह यात्रा 1 अप्रैल, 1935 को तत्कालीन ब्रिटिश भारत के केंद्रीय बैंक के रूप में हिल्टन यंग कमीशन की सिफारिशों पर शुरू हुई थी। इस सिफारिश में तीन स्पष्ट आदेश थे: बैंक नोटों के मुद्दे को रेग्युलेट करना, मौद्रिक स्थिरता हासिल करने के नजरिए से रिजर्व बनाए रखना और देश की ऋण और मुद्रा प्रणाली का देश के हित में संचालित करना।
आरबीआई ने तत्कालीन इंपीरियल बैंक ऑफ इंडिया द्वारा किए जाने वाले कार्यों को अपने हाथ में लेकर कामकाज शुरू किया। कलकत्ता (कोलकाता), बॉम्बे (मुंबई), मद्रास (चेन्नई), रंगून (यांगून), कराची, लाहौर और कानपुर (कानपुर) में मौजूदा करेंसी ऑफिस इसके निर्गम विभाग की शाखाएं बन गई। फिर इसके बैंकिंग विभाग के कार्यालय कलकत्ता, बंबई, मद्रास, दिल्ली और रंगून में स्थापित किए गए।
बर्मा (म्यांमार) 1937 में भारतीय संघ से अलग हो गया, लेकिन रिज़र्व बैंक ने बर्मा के लिए केंद्रीय बैंक के रूप में तब तक काम करना जारी रखा जब तक कि जापानियों ने बर्मा पर कब्ज़ा नहीं कर लिया। बाद में अप्रैल 1947 तक इसने बर्मा के लिए केंद्रीय बैंक के रूप में काम किया। विभाजन के बाद जून 1948 तक आरबीआई ने पाकिस्तान के केंद्रीय बैंक के रूप में कार्य किया। उसके बाद स्टेट बैंक ऑफ पाकिस्तान का जन्म हुआ।
उदारीकरण के साथ ही बैंक का फोकस मौद्रिक नीति, बैंक को सुपरविजन और रेग्युलेशन, भुगतान प्रणाली की देखरेख और वित्तीय बाजारों के विकास जैसे अहम केंद्रीय बैंकिंग कार्यों पर वापस आ गया है।
पिछले कुछ सालों में, (RBI) ने ग्लोबल और घरेलू दोनों अर्थव्यवस्थाओं की चुनौतियों के खिलाफ कई लड़ाइयां लड़ी हैं।
1991 का विदेशी मुद्रा संकट: आरबीआई के सामने सबसे खराब परिस्थितियों में से एक शायद 1991 का भुगतान संतुलन संकट था। उच्च राजकोषीय घाटा, कम विदेशी मुद्रा भंडार और खाड़ी युद्ध के कारण बढ़ते चालू खाता घाटे ने आरबीआई को खतरे में डाल दिया था। इस समय डगमगाती भारतीय अर्थव्यवस्था को बड़ा झटका लगा था। केवल दो सप्ताह के आयात को बनाए रखने के लिए भारत का विदेशी मुद्रा भंडार न्यूनतम स्तर पर पहुंच गया था । देश को इस संकट से बचाने के लिए आरबीआई को 60 करोड़ डॉलर जुटाने के लिए बैंक ऑफ इंग्लैंड को 47 टन सोना और यूनियन बैंक ऑफ स्विट्जरलैंड को 20 टन सोना हवाई जहाज से गिरवी रखने के लिए भेजना पड़ा था।
2013 में, एक और बड़ा संकट सामने आया जब रुपया औंधे-मुंह गिर गया। 2013 के मध्य में मंदी के बाद दूसरे कदमों के अलावा, आरबीआई ने सितंबर 2013 में दो खास स्वैप विंडो ऐलान किया। सबसे पहले, इसने बैंकों द्वारा तीन साल और उससे अधिक की परिपक्वता अवधि की फॉरेन करेंसी नान-रेसीडेंट (FCNR) डिपॉजिट से जुटाए गए अमेरिकी डॉलर को 3.5 फीसदी प्रति वर्ष की रियायती दर पर भारतीय रुपये में स्वैप करने की पेशकश की जो उस समय बाजार की तुलना में लगभग 3 फीसदी सस्ता था। दूसरा, आरबीआई ने बैंकों को फॉरेन करेंसी फंडिंग जुटाने और उन्हें बाजार से 1 फीसदी कम की रियायती दर पर भारतीय रुपये में बदलने की अनुमति दी। इस संकट काल में इन दो स्वैप विंडो से भारत के लिए 34 अरब डॉलर जुटाए जा सके। इसमें से अकेले FCNR रूट के जरिए 26 अरब डॉलर जुटाए गए।
निस्संदेह कोविड महामारी सभी चुनौतियों में से सबसे बड़ी चुनौती थी। 2020 में फैली विश्व अर्थव्यवस्था को तबाह करने वाली कोविड-19 महामारी को दौरान वित्तीय प्रणाली को संचालित करना एक बहुत बड़ी चुनौती थी। आरबीआई गवर्नर शक्तिकांत दास ने जुलाई 2020 में कहा था, “कोविड-19 महामारी का प्रकोप स्पष्ट रूप से पिछले 100 सालों में शांतिकाल के दौरान सबसे खराब स्वास्थ्य और आर्थिक संकट है, जिसके उत्पादन, नौकरियों और मानव कल्याण पर अभूतपूर्व नकारात्मक परिणाम होंगे।”
आरबीआई ने कोविड जनित आर्थिक मंदी से लड़ने के लिए कई उपायों का ऐलान किया जिसमें ब्याज दरों को 4 फीसदी से कम करना, नकद आरक्षित अनुपात को लगभग 100 बेसिस प्वाइंट कम करना, इसके अलावा छोटे को लक्षित करने वाले तरलता उपायों की एक श्रृंखला की घोषणा करना शामिल है। साथ ही, केंद्रीय बैंक ने मुश्किल में पड़े कर्जदारों के लिए मोरेटोरियम की घोषणा भी की। आरबीआई के समय पर संकट से निपटने को उपायों ने बैंकिंग प्रणाली को कोविड के झटके का सामना करने और बाद की अवधि में धीरे-धीरे सामान्य स्थिति में वापस आने में मदद की।
2008-2010 के ग्लोबल वित्तीय संकट के बाद की अवधि में, भारतीय बैंकों ने अपने बटुए को लापरवाही से ढीला कर दिया। जो भी उनके दरवाजे पर उनको बिना ज्यादा सोचे-समझे कर्ज दे दिया। इससे केंद्रीय बैंक के सामने बैड लोन से निपटने की बड़ी चुनौती खड़ी हो गई। केंद्रीय बैंक के सामने आने वाली और भी बड़ी समस्या छिपाए जा रहे बैड लोन की थी क्योंकि बैंकों ने अपने एनपीए की ठीक से जानकारी नहीं दे रहे थे। बैंकों ने अपने वास्तविक एनपीए का खुलासा न करने का एक तरीका ढूंढ लिया, जिससे मजबूत बैलेंस शीट का भ्रम पैदा हो गया। 2015 में, तत्कालीन गवर्नर रघुराम राजन के तहत आरबीआई ने असेट क्वालिटी (AQR )की समीक्षी शुरू की, जिसने बैंकों, विशेष रूप से सरकारी बैंकों को अपने एनपीए का खुलासा करने के लिए मजबूर किया। जिसके चलते बैंकिंग सिस्टम में ग्रॉस एनपीए डबल डिजिट में पहुंच गया।
आरबीआई ने एनपीए की सफाई के लिए जो कदम उठाए उससे शॉर्ट टर्म में परेशानी तो जरूर हुई लेकिन आज भारतीय बैंकों की मजबूत बैलेंस शीट इसी AQR का नतीजा है। उसके बाद ऋण राइट-ऑफ या वसूली के माध्यम से एनपीए के बड़े मामलों को हल करने की कवायद से आज हमारा बैंकिंग सिस्टम काफी मजबूत स्थिति में हैं।
आरबीआई की इस लंबी यात्रा के दौरान ऐसे मौके भी आए हैं जब केंद्रीय बैंक और सरकार के बीच मतभेद हुए हैं। इनमें सरकारी बैंकों के दोहरे रेग्युलेशन और आरबीआई के रिजर्व के इस्तेमाल जैसे मुद्दे शामिल हैं। ऐसे मौके आए हैं जब आरबीआई के शीर्ष अधिकारियों ने आरबीआई की स्वायत्तता के मुद्दे पर सार्वजनिक रूप से अपनी नाराजगी व्यक्त की है जैसे कि पूर्व डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य ने अपने सार्वजनिक भाषणों में सरकार पर तीखा हमला बोला था।
इस समय केंद्रीय बैंक का सबसे बड़ा सिरदर्द महंगाई से निपटना और धीरे-धीरे अपनी नीति में विकास संबंधी चिंताओं पर ध्यान केंद्रित करने के लिए जगह बनाना है। जून 2016 तक, ब्याज दरें तय करना काफी हद तक एक व्यक्ति का काम था और ज्यादातर मौकों पर गवर्नर ही निर्णय लेते थे। लेकिन जून 2016 में यह बदल गया जब भारत औपचारिक रूप से मॉनीटरी पॉलिसी (एमपीसी) मॉडल में शिफ्ट हो गया है। ये पैनल ही दरों पर फैसले लेता है।
2015-2016 में, सरकार और आरबीआई दोनों एक महंगाई लक्ष्य बनाने पर सहम हुए जिसके तहत आरबीआई को मुद्रास्फीति को 2 फीसदी से 6 फीसदी के बीच रखना था। लगातार तीन तिमाहियों तक मुद्रास्फीति को लक्ष्य में रखने में विफल रहने की स्थिति में आरबीआई को सरकार को पत्र लिखकर विफलता के कारण बताने पड़े और ऐसा हुआ भी। आरबीआई औपचारिक रूप से 2022 में लक्ष्य को पूरा करने में विफल रहा और सरकार को विफलता के बारे में बताते हुए एक पत्र भेजा। यह पत्र अभी तक सार्वजनिक नहीं हुआ है।
हाल के महीनों में आरबीई महंगाई को 6 प्रतिशत से नीचे लाने में सफल रहा है, लेकिन यह अभी भी 4 फीसदी के मध्यम अवधि के लक्ष्य से ऊपर बना हुआ है। आरबीआई ने स्पष्ट रूप से कहा है कि जब तक महंगाई स्थायी तरीके से 4 फीसदी पर नहीं आ जाती, तब तक वह ब्याज दरों में कटौती नहीं करेगा।
पिछले कुछ सालों में, आरबीआई ने कई बैंक और एनबीएफसी के पतन के दौरान तेजी से कार्रवाई की है और जबरन अधिग्रहण शुरू किया है। इनमें आईएलएफएस, डीएचएफएल संकट, 2020 यस बैंक बचाव और लक्ष्मीविलास बैंक का डीबीएस अधिग्रहण का प्रबंधन शामिल हैं। लेकिन एनबीएफसी क्षेत्र से नई चुनौतियां सामने आ रही हैं। पिछले छह महीनों में, आरबीआई ने कई शैडो बैंकों पर आक्रामक रूप से शिकंजा कसा है और लापरवाही से ऋण देने पर जोखिम का आकलन करने के लिए कई संस्थाओं की जांच शुरू की है।
आरबीआई ने हाल ही में गोल्ड लोन और इक्विटी बाजार से संबंधित लोन जैसी कुछ कटेगरी में लोन देने में अनियमितताओं को देखने के बाद कम से कम दो गैर-बैंकिंग वित्त कंपनियों (एनबीएफसी) – जेएम फाइनेंशियल प्रोडक्ट्स लिमिटेड (जेएमएफपीएल) और आईआईएफएल फाइनेंस के खिलाफ कार्रवाई की है।
आरबीआई 90 वर्ष का हो गया है और आगे की ओर देख रहा है। ऐसे में इसके सामने प्रमुख चुनौतियों में से एक फिनटेक और छोटे बैंकों की नई पीढ़ी को नेविगेट करना बनी हुई है। ये आक्रामक रूप से कमजोर क्षमता वाले उधारकर्ताओं को अनसिक्योर्ड लोन दे रहे हैं। इस समय भारतीय बैंकिंग सिस्टम टेक्नोलॉजी से जुड़े जोखिमों से भी घिरा हुआ है। इसमें ऑर्टिफिशियल इंटेलीजेंस भी शामिल है। साथ ही, भारतीय केंद्रीय बैंक को ग्लोबल रिस्क फैक्टरों पर कड़ी नजर रखने की जरूरत है, जिनमें रूस-यूक्रेन युद्ध, ग्लोबल कमोडिटी कीमतों में उतार-चढ़ाव से उभरने वाले फैक्टर शामिल हैं। लेकिन अच्छी बात ये है कि भारतीय केंद्रीय बैंक चुनौतियों से निपने का अच्छा अनुभाव रखता है।