सुबह 9 बजे से दोपहर 1 बजे तक फाइलें निबटाते रहे बाबूजी …

सुबह 9 बजे से दोपहर 1 बजे तक फाइलें निबटाते रहे बाबूजी, तबियत बिगड़ी तो अस्पताल जाने से पहले मां से हाथ मिलाया, दो दिन बाद अनंत यात्रा पर चले गए , वरिष्ठ कांग्रेस नेता मोतीलाल वोरा के पुत्र विधायक अरूण वोरा के शब्दों में
दुर्ग। बाबूजी 3 माह पहले कोरोना को परास्त कर घर लौट चुके थे। कुछ दिनों तक आराम करने के बाद बाबूजी की दिनचर्या पहले जैसी हो गई। सुबह से दोपहर तक लगातार विभिन्न संस्थाओं, ट्रस्टों से संबंधित कामकाज की फाइलों को निबटाने के बाद वे दोपहर का भोजन करते थे। यही दिनचर्या 19 दिसंबर को भी रही।
19 दिसंबर को बाबूजी ने सुबह 9 बजे से दोपहर 1 बजे तक काम किया। उनका स्वास्थ्य बिगड़ने लगा तो उन्हें दोपहर डेढ़ बजे हॉस्पिटल ले जाया गया। उनके पैरों में सूजन आ गई थी। अस्पताल जाने से पहले उन्होंने मां ( श्रीमती शांति वोरा ) से कहा कि मुझसे हाथ मिलाओ। बाबूजी ने मां से हाथ मिलाया। इसके बाद उन्हें हास्पिटल ले जाया गया।
20 दिसंबर को उनका जन्मदिन था … उनकी तबियत ठीक नहीं थी … वे अस्पताल में भर्ती रहे … उनकी हालत नाजुक होती गई … 21 दिसंबर को उनका देहावसान हो गया … हमें अकेला छोड़कर … बचपन से लेकर इस उम्र के पड़ाव तक मुझे बाबू कहकर पुकारने वाले बाबूजी … अनंत यात्रा पर चले गए … राजनीतिक जीवन ही नहीं बल्कि सामान्य जीवन से जुड़ी एक-एक बातें सिखाने वाले बाबूजी दुनिया छोड़कर चले गए …
सच तो ये है कि वे सिर्फ मेरे बाबूजी नहीं थे … वे तो जनसामान्य के बाबूजी थे … सभी कांग्रेसी उन्हें बाबूजी कहते … दुर्ग से लेकर दिल्ली तक अधिकांश लोग उन्हें बाबूजी ही कहते … उनकी सहजता, विनम्रता और सरल स्वभाव दुर्ग से दिल्ली तक के राजनीतिक पड़ाव के दौरान हमेशा कायम रहा। भोपाल के वल्लभ भवन से लेकर लखनऊ के राजभवन और कांग्रेस मुख्यालय तक हर जगह उनकी सादगी और सरलता की चर्चा पहले भी होती थी और आज उनके देहांत के बाद भी हो रही है।
बाबूजी हर व्यक्ति से बेहद सहजता से मिलते थे। एक बार भी नहीं सोचते थे कि वे कितनी बड़ी राजनीतिक हस्ती हैं। भोपाल, लखनऊ और दिल्ली में रहते हुए केंद्रीय मंत्रियों, मुख्यमंत्रियों समेत दिग्गज राजनेताओं से उसी अंदाज में बातें करते, जितनी सरलता से किसी आम आदमी से बातें करते थे। बड़े-बड़े पदों पर रहते हुए भी उनमें जरा भी अभिमान नहीं रहा। वो खुद को बड़ा समझते ही नहीं थे।
मुख्यमंत्री का पद संभालने के बाद भोपाल में बाबूजी रोज करीब 18 घंटे काम करते थे। उनकी एकमात्र इच्छा पूरे मध्यप्रदेश के नागरिकों की सेवा करना होता था। लखनऊ में उत्तरप्रदेश के राज्यपाल के रूप में भी उनकी वर्किंग ऐसी ही रही। उस समय राष्ट्रपति शासन लगा होने के कारण प्रदेश के सारे फैसले राज्यपाल होने के नाते बाबूजी ही करते। वहां भी अपनी सरलता और सहजता के साथ-साथ सुबह से देर रात तक कामकाज निबटाने के कारण उनकी चर्चा प्रदेश का नागरिकों के बीच होती।
सबसे खास बात ये रही कि … वे चाहे भोपाल में रहे हों … या दिल्ली में … या फिर लखनऊ में … उनका दिल दुर्ग शहर में ही रहता था। 1985 में मुख्यमंत्री बनने के बाद से उनका दुर्ग आगमन कम होता चला गया लेकिन वे नई-नई जिम्मेदारियों का निर्वहन करते हुए भी दुर्ग शहर से जुड़ी छोटी-छोटी बातें पूछते रहते। शहर के विकास की बातें … सभी वार्डों के उनके दौर के पार्षदों के हालचाल की बातें … वार्डों में उनके परिचित नागरिकों की बातें … सभी के बारे में पूछते रहते …
बाबूजी ऐसे कर्मवीर थे कि कभी काम से थकते ही नहीं थे … रोज 18-18 घंटे काम करने वाले बाबूजी 93 साल की उम्र में भी सुबह 9 बजे से अपनी कुर्सी पर बैठ जाते … रोज फाइलें निबटाते … जब कभी दिल्ली जाते तो बाबूजी मुझे भी जनसेवा के लिए रोज खूब मेहनत करने की नसीहत देते।
बाबूजी का चिंतन, उनकी विनम्रता और सहजता के साथ जनसेवा का भाव मेरे लिए सबसे बड़ी सीख है।
बाबूजी हमेशा कहते – पद आते-जाते रहेंगे … हार जीत लगी रहेगी … लेकिन अगर राजनीति में हो तो आम जनता से विनम्रता के साथ उनकी सुविधाओं के लिए काम करने का भाव कभी कम नहीं होना चाहिए।
ऐसे थे मेरे बाबूजी … हम सबके बाबूजी …
महान कर्मयोगी … बेहद विनम्र … एकदम सरल … बेहद स्नेही …
ईश्वर … मेरे बाबूजी को अपने श्रीचरणों में स्थान दे …

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